जमाना हमें अबला क्यों बुलाता है।


जमाना हमें अबला क्यों बुलाता है।
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मेरे पैदा होने पर परि कहते थे लोग, 
मेरी नटखट अदा पर हँसते थे लोग।
मुझे बेटा कहकर बुलाते थे लोग,
मेरे गाल खींच कर लाड लड़ाते थे लोग।
मुझे स्कूल छोड़ते और लाते थे लोग
, मुझ पर हक जताते थे सब लोग।
मेरे लिए सब सहारा बन जाते थे लोग ,
मुझसे दया कर लाड़ लड़ाते थे लोग।

पर धीरे-धीरे सब कुछ बदल गया
जैसे ही मैं बड़ी हुई कुछ लोग मुझे निहारने लगे।
मेरी पीठ पीछे गलत मतलब के नाम से पुकारने लगे।
मेरा अकेले बाहर जाना खतरो से खाली न था।
कौन ले मेरी जिम्मेदारी मेरा कोई माली न था।
मां बोलती थी मुझसे आजकल जमाना ठीक नहीं है।
तू घर में ही रहा कर अकेले आना-जाना ठीक नहीं है।
पर
एक दिन की बात है एक लफंगे ने मेरा रस्ता रोक लिया।
मैंने आव देखा न ताव खुद को लड़ाई में झोंक लिया।
खींच कर मारी लात उसकी जांघो के बीच और वो बोखला गया।
आठ दस चांटे मारे गाल पर खून नाक से आ गया।
मैंने कहा गुस्से से रुक साले नपुंसक अभी पत्थर लाती हूँ।
खुद की रक्षा कैसे की जाती भेडियों से कमीने अभी दिखाती हूँ।
वो ऐसा भागा-ऐसा भागा आज तक नजर नहीं आता है।
प्रभाव मेरी हिम्मत का, मेरी षादी के बाद भी
मेरी गली में हर लड़का नजर झुका कर जाता है।
बस! गम है तो इस बात का
कि जमाना हमें अबला क्यों बुलाता है। जमाना हमें अबला क्यों बुलाता है।
इसलिए सही कहता है सम्पत कवि!
बहनों कभी मत हारों ऐसे लफंगो से जो तुम्हारा रस्ता रुकाता है।
सबक सिखाओं उनको जिनको नारी जात की कद्र करना नहीं आता है। - सम्पत षर्मा
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